प्रवासी लेखक >> वक्त के साथ वक्त के साथपूर्णिमा वर्मन
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नयेपन का आभास नये शब्द चित्र बनाती ये कविताएं सीधे हृदय पटल पर अंकित हो जाती हैं.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
वक्त के साथ
चलना आसान नहीं। इन्सान गिरता है, संभलता है, उजियाले की ख्वाहिश रखते हुए
आगे बढ़ने की कोशिश भी करता है। पूर्णिमा वक्त के साथ चल रही हैं, हर मोड़ से गुज़र रही हैं, अपने कदमों के निशां छोड़े जा रही हैं और हर मोड़ पर, हर मौसम से गुजरते हुए जीवन की अनुभूतियाँ पृष्ठ-पृष्ठ पर अभिव्यक्त कर रही हैं।
रात का अंधेरा हो या दिन का
उजियाला,
सड़क पर धूल उड़ रही हो या सन्नाटा,
फागुन हो या बारिश,
उदासी या उमंग
आतंकवाद या दोस्ती का दुलार
सफर लंबा हो या कठिन
बरगद हो या पर्वत के देवदार,
फूलों से प्यार करती हुई
आशा के दिये जलाती हुई पूर्णिमा कह रही है-
जानेममन नाराज़ न हो,
दोस्त तुम हो....
सड़क पर धूल उड़ रही हो या सन्नाटा,
फागुन हो या बारिश,
उदासी या उमंग
आतंकवाद या दोस्ती का दुलार
सफर लंबा हो या कठिन
बरगद हो या पर्वत के देवदार,
फूलों से प्यार करती हुई
आशा के दिये जलाती हुई पूर्णिमा कह रही है-
जानेममन नाराज़ न हो,
दोस्त तुम हो....
अनहद खुशी है
कि एक दोस्त, अपनी कविताओं
के सहारे,
अपना वक्त जगत से बांटने जा रही है।
अम्मीद है, पूर्णिमा की रोशनी हज़ारों दिये जलाती रहे,
अंधकार में राह दिखाती रहे।
के सहारे,
अपना वक्त जगत से बांटने जा रही है।
अम्मीद है, पूर्णिमा की रोशनी हज़ारों दिये जलाती रहे,
अंधकार में राह दिखाती रहे।
अभिमत
वक्त कभी
ठहरता नहीं। जो इसके प्रवाह के साथ नहीं चलता वक्त से उसका नाता टूट जाता
है। वक्त के साथ कुछ बदल जाता है। वक्त शिल्पी की तरह दीवारों पर खुद
उकेरता है इतिहास (वक्त के साथ) वक्त के पड़ावों पर सुख-दुख, हर्ष-विषाद
आदि सब कुछ मिलते हैं। संयम कभी आशा है तो कभी मरहम, विशेषकर, त्रासदी या
कष्ट में। वक्त कभी रुमाल बनकर पोंछता आँसू, कभी वह भूख था, कभी उम्मीद का
सूरज..(इस मोड़ पर)। ठहराव में पिछड़ जाने की अनुभूति होती है। ऐसी अवस्था
में व्यक्ति पीछे रहने अथवा समय धारा के विपरीत चलने का औचित्य तलाश करने
लगता है। काल-गति के संग विचरण का आनन्द अनूठा होता है। साहित्य, विशेषकर
कविता का वर्तमान युग विषय-विविधताओं से भरा है। इनमें हृदय की संवेदना,
यथार्थ की झलक, विद्यमान परिस्थितियों से संघर्ष का चित्रण, आदर्शों का
प्रतिपादन, समाज के आह्वान से लेकर क्रान्ति के स्वर भी दिखाई पड़ते है।
पर शाश्वत साहित्य का जन्म मनुष्य की कालजयी प्रवृत्तियों पर ही आधारित
है। प्रकृति, सौन्दर्य, मानव अभिलाषा का इसमें प्रमुख स्थान है। पूर्णिमा
वर्मन की कृति ‘वक्त के साथ’ में मनुष्य की अनेक
प्रवृत्तियों तथा प्रकृति के अनेक दृश्यों का दर्शन होता है।
विस्मयकारक और विपरीत परिस्थितियों में संकल्प एक बहुत ही बड़ी शक्ति है। संकल्प के साथ यदि लोकहित के स्वर हों तो फिर ऐसी ही पंक्तियाँ जन्म लेती हैं—
विस्मयकारक और विपरीत परिस्थितियों में संकल्प एक बहुत ही बड़ी शक्ति है। संकल्प के साथ यदि लोकहित के स्वर हों तो फिर ऐसी ही पंक्तियाँ जन्म लेती हैं—
‘दृढ़ निश्चय फिर भी कंचनजंघा सा है
झरनों का स्वर मंगलमय गंगा सा है।’
झरनों का स्वर मंगलमय गंगा सा है।’
(आज अचानक)
पूर्णिमा जी
की कविता में नयेपन का आभास नये शब्द चित्र भी बनाता है, जो सीधे हृदय पटल
पर अंकित हो जाते हैं। कहीं अपनी टीस, अपनी धड़कन, अपनी मुस्कान या
अनुभूतियाँ। जैसे—
‘अंधेरे में
किताबें अचानक
नयी हो उठती हैं बिलकुल
सजी हुई तरतीब से’
किताबें अचानक
नयी हो उठती हैं बिलकुल
सजी हुई तरतीब से’
(अंधेरे में)
और आगे—
‘खिड़की को पार कर
आने लगती है
नयी हवा
भय लगता है
कोई जला न दे रोशनी
और सपनों का यह शीश महल
बिखर जाये पल भर में।’
‘खिड़की को पार कर
आने लगती है
नयी हवा
भय लगता है
कोई जला न दे रोशनी
और सपनों का यह शीश महल
बिखर जाये पल भर में।’
(अंधेरे में)
एक दूसरा बिम्ब—
‘रुकी हुई बारिश में कहीं कहीं दिखता है
आसमान चुपके से तारों में लिखता है
चाँदनी से धूप तलक सावन के नाम
गमले भर फूल आज आंगन के नाम।’
‘रुकी हुई बारिश में कहीं कहीं दिखता है
आसमान चुपके से तारों में लिखता है
चाँदनी से धूप तलक सावन के नाम
गमले भर फूल आज आंगन के नाम।’
(आंगन के नाम)
और जब धूप की
बात आयी है तो पूर्णिमा जी कहती है—
‘बाँसों के झुरमुरों
में दिन गुनगुना रहा है
हम धूप सेंकते हैं और छाँह ढूँढ़ते हैं।’
हम धूप सेंकते हैं और छाँह ढूँढ़ते हैं।’
(अपनी खुशी)
दिन का
गुनगुनाना वास्तव में प्रसन्नता का द्योतक है। भीड़ और अकेलापन में
विरोधाभास है, परन्तु एक के अस्तित्व से ही दूसरे के अस्तित्व की पहचान
होती है। पूर्णिमा जी के शब्दों में ज़िन्दगी जिन्दा मछली की तरह साँसों
की तलाश में बार-बार हाथ से फिसल जाती है। यह तलाश होती है—
‘भीड़ों के अँधेरे सागर में
भीड़ जो बरसों से अकेलेपन की परिचायक है।’
भीड़ जो बरसों से अकेलेपन की परिचायक है।’
(आधी रात)
एकान्त में कभी-कभी मनुष्य अपनेपन की पहचान पा जाता है और फिर उसके मन में गूंजती हैं अपेक्षायें और अभिलाषायें। वह गुंजन कुछ-कुछ ऐसा ही होता है—
‘रोशनी का एक शीशा साफ कर दो
फिर अँधेरा चीर कर उस पार कर दो
भेद कर आकाश की तनहाइयों को
फिर पुकारो मुझे
नाम लो मेरा
कि गूँजे यह धरा
हर दिशा को एक सूरज दान कर दो
फिर उजालों में नई पहचान भर दो’
फिर अँधेरा चीर कर उस पार कर दो
भेद कर आकाश की तनहाइयों को
फिर पुकारो मुझे
नाम लो मेरा
कि गूँजे यह धरा
हर दिशा को एक सूरज दान कर दो
फिर उजालों में नई पहचान भर दो’
(नाम लो मेरा)
पूर्णिमा जी
की सफलता का प्रमाण यह है कि इन पंक्तियों को पढ़कर व्यक्ति को ऐसा आभास
होता है जैसे यह उसके ही हृदय की धड़कन हो।
पराजय या निराशा के बाद भी व्यक्ति को सफलता हेतु संघर्ष के लिए पूर्णिमा जी ने बहुत ही सरल भाषा में उत्प्रेरित किया है—
पराजय या निराशा के बाद भी व्यक्ति को सफलता हेतु संघर्ष के लिए पूर्णिमा जी ने बहुत ही सरल भाषा में उत्प्रेरित किया है—
‘सुनो-सुनो’
कोई अजातशत्रु नहीं है
........
जीतना है तो
जरूरी है
पुनर्जन्म लेना
पुनः नई काया में
साहस टटोलना
कि
युद्ध तो लड़ना ही है
बिना युद्ध कहीं कोई जीता है यही रामायण है
यही रामायण है
यही गीता है
कोई अजातशत्रु नहीं है
........
जीतना है तो
जरूरी है
पुनर्जन्म लेना
पुनः नई काया में
साहस टटोलना
कि
युद्ध तो लड़ना ही है
बिना युद्ध कहीं कोई जीता है यही रामायण है
यही रामायण है
यही गीता है
(सुनो-सुनो)
परन्तु पूर्णिमा जी की दृष्टि में युद्ध स्वयं कोई लक्ष्य नहीं है। यह एक तूफ़ान
है, उसके बाद अपनी ज़िन्दगी, अपना बसेरा। इसीलिए वह कहती है—
‘बारिश का झरना
कब झीलों का सोता होता है
काश ! बीहड़ों में
अपना एक गाँव होता
जीवन की इस घनी धूप में
छाँव होता
काश ! गहन इस झील का कोई
सोता होता।’
कब झीलों का सोता होता है
काश ! बीहड़ों में
अपना एक गाँव होता
जीवन की इस घनी धूप में
छाँव होता
काश ! गहन इस झील का कोई
सोता होता।’
(बरगद)
जब प्रकृति ही
किसी का गाँव-ठाँव हो जाय तो पूर्णिमा जी का बखान मोहक होता है—
‘उतर रही थी शाम पहाड़ों से
बादल की बांहों में बांहें डाले
........
हरी वसुन्धरा गले मिली थी
आसमान से
........
बारिश-बारिश नभ रोया था
धरती शबनम भीगी थी।’
बादल की बांहों में बांहें डाले
........
हरी वसुन्धरा गले मिली थी
आसमान से
........
बारिश-बारिश नभ रोया था
धरती शबनम भीगी थी।’
(बारिश-बारिश नभ)
पूर्णिमा जी
के अनुसार जीवन प्रवाहमय है। इसकी विविधता के स्वरों में आशा और अनुरोध है
तो इसकी उड़ान में अहसास और उत्साह के रंग भी भरे हैं—
‘जिन्दगी वक्त सी टुकड़ों में उड़ी जाती है
हर एक सांस में अनुरोध किए जाती है
आशा की शक्ल में साये को सिये जाती है।’
हर एक सांस में अनुरोध किए जाती है
आशा की शक्ल में साये को सिये जाती है।’
(ज़िन्दगी)
कविता का
दर्शन व्यावहारिक पक्ष से अलग होकर अर्थहीन हो जाता है। पूर्णिमा जी ने
दिन-प्रतिदिन के जीवन में आने वाले पात्रों, घटनाओं, अनुभूतियों का अपनी
रचनाओं में सजीव चित्रण किया है। ‘दर्जी की कविता’,
‘किस क़दर’, ‘दावत धूल उड़ती रही,
‘दोस्त तुम हो’, ‘मेरा गाँव
में’, ‘शहर में बरसात’ आदि इसी श्रेणी की
रचनायें हैं।
शब्द विन्यास, जीवन्तत, हृदय-स्पर्श की क्षमता, भाव-प्रवाह आदि की दृष्टि से भी पूर्णिमा जी की रचनायें सार्थक व सफल हैं। इसके कुछ उदारहण हैं—
शब्द विन्यास, जीवन्तत, हृदय-स्पर्श की क्षमता, भाव-प्रवाह आदि की दृष्टि से भी पूर्णिमा जी की रचनायें सार्थक व सफल हैं। इसके कुछ उदारहण हैं—
‘दीप
की लौ मंद हो तो मधुर दीपक राग गाना
रेत का मंदिर बनाकर उसको सीपी से सजाना’
रेत का मंदिर बनाकर उसको सीपी से सजाना’
(दीपक जलाना)
‘हर श्याम के कंधो पर एक चाँद को आना है’
(डूब के जाना है)
‘मरमरी उंगलियों मे मूंगिया हथेली
चितवन की चौपड़ पर प्यार की पहेली
.......
वक्त के सिरहाने यों एक बात उग गयी
चितवन की चौपड़ पर प्यार की पहेली
.......
वक्त के सिरहाने यों एक बात उग गयी
(गुलमोहर)
‘झरे रही है
ताड़ की इन उंगलियों से धूप
करतलों की छांह बैठा
दिन फटकता सूप
पार्दर्शी याद के
खरगोश
रेत के पार बैठे
खामोश’
ताड़ की इन उंगलियों से धूप
करतलों की छांह बैठा
दिन फटकता सूप
पार्दर्शी याद के
खरगोश
रेत के पार बैठे
खामोश’
(ग्रीष्म के स्तूप)
‘और सत्य का पाताल
जिसके मोह भंग के चक्रवात से अचंभित
त्रस्त मन’
जिसके मोह भंग के चक्रवात से अचंभित
त्रस्त मन’
(मोह भंग)
‘सरसों के रंग-सा/महुए की गंध-सा
एक गीत और कहो/मौसमी बसन्त का’
एक गीत और कहो/मौसमी बसन्त का’
(एक गीत और कहो)
‘फिर पड़ेगी सावनी जलधारा मन अच्छा लगेगा
फिर हँसेगे हम सुबह से शाम तक अच्छा लगेगा’
फिर हँसेगे हम सुबह से शाम तक अच्छा लगेगा’
(सावनी जलधार)
जीवन का
दार्शनिक तत्व भी पूर्णिमा जी से अछूता नहीं रहा है।
‘वक्त के साथ’, ‘धूल उड़ती रही’, ‘दोस्त तुम हो’, ‘जाने मन नाराज़ ना हो’, ‘खिड़की’, ‘किस क़दर’, ‘मोह-भंग’, ‘रेत सागर’ आदि में हमें इस तत्व की अनुभूति होती है।
और अंत में, कविता क्या है ? शब्दों की दोस्ती का शब्दों में ही वर्णन, पूर्णिमा जी के शब्दों में—
‘वक्त के साथ’, ‘धूल उड़ती रही’, ‘दोस्त तुम हो’, ‘जाने मन नाराज़ ना हो’, ‘खिड़की’, ‘किस क़दर’, ‘मोह-भंग’, ‘रेत सागर’ आदि में हमें इस तत्व की अनुभूति होती है।
और अंत में, कविता क्या है ? शब्दों की दोस्ती का शब्दों में ही वर्णन, पूर्णिमा जी के शब्दों में—
‘शब्द दोस्त हैं मेरे
.....
मेरे साथ बढ़ते हुए।
मेरे विश्वास पर खरे उतरते हुए
........
मेरा धर्म
मेरा ईश्वर
मेरा दर्शन
........शब्द ब्रह्म।’
.....
मेरे साथ बढ़ते हुए।
मेरे विश्वास पर खरे उतरते हुए
........
मेरा धर्म
मेरा ईश्वर
मेरा दर्शन
........शब्द ब्रह्म।’
(शब्द)
इस सुन्दर
रचना-संग्रह के लिए पूर्णिमा वर्मन जी को मेरी बधाई। उनकी लेखनी विश्राम न
लें, इन्हीं शुभकमनाओं के साथ—
केशरी नाथ त्रिपाठी
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